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Thursday, December 4, 2014

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खेलों को रास्ता बनाकर एडमीशन की राह आसान की जा सकती है।

कभी कहा जाता था कि पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाव लैकिन आज वह दौर भी आ चुका है जबकि कहावत एक मायने में बदल गयी है और नयी कहावत बनी है कि खेलोगे कूदोगे बनोगे नबाब।
आजकल शिक्षा उस दौर से गुजर रही है जवकि या तो छात्र पढ़ाई में एकदम अव्वल हो नही तो उसे पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूल मिलना असम्भव नही तो बहुत मुश्किल अवश्य है।वहीं अगर आपने पढ़ाई के साथ साथ स्पोर्ट्स में भी हाथ अजमाइस की है तो आपको एडमीशन का रास्ता अच्छे विद्यालयों, संस्थानों में होना निश्चित है इसका कारण है आजकल सभी विद्यार्थियों में अच्छे नम्बर लाने की होड़ सी लगी है और सभी का ध्यान खेलों से नदारद है इस कारण आजकल किसी संस्थान की पहली कट ऑफ लिस्ट 98 परसेंट या कई बार इससे भी अधिक पर निकलती है। दूसरी कट्ऑफ 95 प्रतिशत पर तीसरी 92 प्रतिशत और अच्छे कालेजों में इससे कम अंक लाने बालों की पढ़ाई का रास्ता बंद हो जाता है ,सामान्य संस्थानों में भी छठी सातवी कट्ऑफ लिस्ट मे 65 व 60 प्रतिशत तक अंक लाने बाले दाखिला ले पाते हैं।और कालेजों और यूनिवर्सिटीज़ में स्पोर्ट्स कोटे की सीटे खाली रहती है।अब किताबें खेलकूद पर भारी पड़ रही हैं।फलतः नॉन स्पोर्ट्स स्टूडेंट्स की कतार लम्बी होती जा रही है और उनके लिए अवसरों की कमी तो एसे में यदि खेलकूद पर भी थोड़ा ध्यान दे लिया जाए तो हमें इस लम्बी कतार का इंतजार नही करना पड़ेगा और फटाफट से सीधे ऐडमीशन भी पक्का हो जाएगा।बैसे भी जिस प्रकार की रेश लगी पड़ी है उसमें देखा जाता है कि जो बच्चे खेल के क्षेत्र में अच्छा कर सकते हैं कभी कभी उन्हैं अपने अभिभावको मित्रों व अध्यापकों का प्रोत्साहन नही मिल पाता वे पढ़ाई में तो बहुत अच्छा कर ही नही पाते और जब प्रोत्साहन नही मिलता तो खेलों के क्षेत्र में भी उत्साह विहीन होकर इस क्षेत्र को भी छोड़ देते हैं और किसी प्रकार 12 बीं पास कर लेते हैं फिर उच्च शिक्षा में एडमीशन न प्राप्त कर पाने के कारण आगे शिक्षा प्राप्त नही कर पाते और शिक्षा का क्षेत्र अवरूद्ध हो जाता है अतः अव सोचना आपको है कि आप केवल किताब पकड़ने बाला पढ़ाकू बनना चाहेगें या फिर पूरी तरह हर काम को ध्यान में रखकर काम करने वाला स्टूडेंट। आजकल के दौर में बाजारू स्किल्स व कैरियर की रेस ने व्यक्ति को व्यक्ति नही प्रोडक्ट बनाकर रख दिया है पेरेन्ट्स भी चाहते हैं कि उनका बच्चा धन कमाने बाली मशीन बनना चाहिये।अब वे बच्चा नही एक ब्राण्ड बनाना चाहते है और चाहते हैं कि वह बने बस बने तो रेस का टट्टू बच्चे का बालपन कहीं खो गया है।उन्हैं यह पता ही नही है कि खेलों में बेस्ट करके बच्चा पैसा तो कमाता ही है साथ ही नाम भी कमाता है। आजकल सोसायटीज़ मे मोटे मोटे लेंसों लगाए अनेक बच्चे देखे होगें जिन्हौने अच्छी परसेंटेज़ के चक्कर में अपनी आँखों का चूरमा बना लिया है। और उसके बावजूद भी 90 प्रतिशत का आँकड़ा छूने से कोशों दूर है केवल दिखाई देने में पढ़ाकू है जबकि बास्तम में पढ़ाई में मन नही लगता है।हमेशा खेलने को मन करता है किन्तु सोसायटी में खेलने बाले बच्चों की बड़ी बेकदरी होती है इस बात से वह अपने मन को मारकर केवल पढ़ने में लगे रहते हैं बैसे भी समाज में क्रिकेट खेलने बालों को शरारतियों की कैटेगरी में डाल दिया जाता है।स्पोर्ट नैचुरल हैं जबकि पढ़ाई आर्टीफीसियल और इस आर्टीफिशियलिशिटी के चक्कर में बच्चे का अपना बचपन,मन सब दाव पर लग जाता है और जी भर कर पढ़ाई करने के बावजूद जब बच्चे के मार्क्स कट्ऑफ लिस्ट के हिसाब से नही आते तब पैरेन्ट्स भी कुछ नही कर पाते है। अतः बच्चे पर अपेक्षा से ज्यादा पावन्दियाँ लगाने से केवल परेशानियाँ ही पैदा होती हैं।अब कालेजों में कटऑफ लिस्टों पर नजर मारने पर नजर डालने से पता चलेगा कि पैरेंटस टीचर सभी का सूत्रवाक्य कई बार काम नही करता है और पढने बाले छात्र को भी कभी कभी किसी संस्थान में एडमीशन नही मिलता है एसे में समझ आता है कि किसी गेम में हाथ अजमाया होता तो स्पोर्ट्स कैडिडेट की छोटी सी लाइन में बड़ी आसानी से एडमीशन प्राप्त किया जा सकता था किन्तु मौका तो हाथ से निकल चुका है क्या किया जा सकता है अतः ध्यान से अगर कैरियर पर नजर डाली जाऐ और माता पिता भी बच्चे को उसके मन के हिसाब से चलाऐं तो इन समस्याओं से केवल मुक्ति ही नही पायी जा सकती अपितु कैरियर की नई सीढ़िया भी चढ़ी जा सकती हैं।

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